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न॒हि त्वा॒ रोद॑सी उ॒भे ऋ॑घा॒यमा॑ण॒मिन्व॑तः। जेषः॒ स्व॑र्वतीर॒पः सं गा अ॒स्मभ्यं॑ धूनुहि॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

nahi tvā rodasī ubhe ṛghāyamāṇam invataḥ | jeṣaḥ svarvatīr apaḥ saṁ gā asmabhyaṁ dhūnuhi ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

न॒हि। त्वा॒। रोद॑सी॒ इति॑। उ॒भे इति॑। ऋ॒घा॒यमा॑णम्। इन्व॑तः। जेषः॑। स्वः॑ऽवतीः। अ॒पः। सम्। गाः। अ॒स्मभ्य॑म्। धू॒नु॒हि॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:10» मन्त्र:8 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:20» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:3» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर अगले मन्त्र में ईश्वर का प्रकाश किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - हे परमेश्वर ! ये (उभे) दोनों (रोदसी) सूर्य्य और पृथिवी जिस (ऋघायमाणम्) पूजा करने योग्य आपको (नहि) नहीं (इन्वतः) व्याप्त हो सकते, सो आप हम लोगों के लिये (स्वर्वतीः) जिनसे हमको अत्यन्त सुख मिले, ऐसे (अपः) कर्मों को (जेषः) विजयपूर्वक प्राप्त करने के लिये हमारे (गाः) इन्द्रियों को (संधूनुहि) अच्छी प्रकार पूर्वोक्त कार्य्यों में संयुक्त कीजिये॥८॥
भावार्थभाषाः - जब कोई पूछे कि ईश्वर कितना बड़ा है, तो उत्तर यह है कि जिसको सब आकाश आदि बड़े-बड़े पदार्थ भी घेर में नहीं ला सकते, क्योंकि वह अनन्त है। इससे सब मनुष्यों को उचित है कि उसी परमात्मा का सेवन उत्तम-उत्तम कर्म करने और श्रेष्ठ पदार्थों की प्राप्ति के लिये उसी की प्रार्थना करते रहें। जब जिसके गुण और कर्मों की गणना कोई नहीं कर सकता, तो कोई उसके अन्त पाने को समर्थ कैसे हो सकता है?॥८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरीश्वर उपदिश्यते।

अन्वय:

हे परमेश्वर ! इमे उभे रोदसी यमृघायमाणं त्वां नहीन्वतः, स त्वमस्मभ्यं स्वर्वतीरपो जेषो गाश्च संधूनुहि॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (नहि) निषेधार्थे (त्वा) सर्वत्र व्याप्तिमन्तं जगदीश्वरम् (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ। रोदसी इति द्यावापृथिव्योर्नामसु पठितम्। (निघं०३.३०) (उभे) द्वे (ऋघायमाणम्) परिचरितुमर्हम्। ऋध्यते पूज्यते इति ऋघः। बाहुलकात् कः, तत आचारे क्यङ्। ऋध्नोतीति परिचरणकर्मसु पठितम्। (निघं०३.५) (इन्वतः) व्याप्नुतः। इन्वतीति व्याप्तिकर्मसु पठितम्। (निघं०२.१८) (जेषः) विजयं प्राप्नोषि। ‘जि जये’ इत्यस्माल्लेटि मध्यमैकवचने प्रयोगः। (स्वर्वतीः) स्वः सुखं विद्यते यासु ताः (अपः) कर्माणि कर्त्तुम्। अप इति कर्मनामसु पठितम्। (निघं०२.१) (सम्) सम्यगर्थे क्रियायोगे (गाः) इन्द्रियाणि (अस्मभ्यम्) (धूनुहि) प्रेरय॥८॥
भावार्थभाषाः - यदा कश्चित्पृच्छेदीश्वरः कियानस्तीति, तत्रेदमुत्तरं येन सर्वमाकाशादिकं व्याप्तं नैव तमनन्तं कश्चिदप्यर्थो व्याप्तुमर्हति। अतोऽयमेव सर्वैर्मनुष्यैः सेवनीयः, उत्तमानि कर्माणि कर्त्तुं वस्तूनि च प्राप्तुं प्रार्थनीयः। यस्य गुणाः कर्माणि चेयत्तारहितानि सन्ति, तस्यान्तं ग्रहीतुं कः समर्थो भवेत्॥८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जेव्हा एखाद्याने विचारले की ईश्वर किती मोठा आहे तर त्याचे उत्तर असे की ज्याला सर्व आकाश इत्यादी मोठमोठे पदार्थही वेढू शकत नाहीत असा तो अनंत आहे. त्यामुळे सर्व माणसांनी उत्तम कर्म करण्यासाठी व श्रेष्ठ पदार्थाच्या प्राप्तीसाठी त्याच परमात्म्याचे सेवन करावे व त्याचीच प्रार्थना करीत राहावे. ज्याच्या गुणकर्माचे मापन कुणी करू शकत नाही त्याचा अंत घेण्यास कोण कसे समर्थ होऊ शकेल? ॥ ८ ॥